एक तलाश में भटकता हूँ,
जो तुमतक आकर रुकती है।
क्योंकि, मैं तुमतक भटकता हूँ,
यादों की घाट पर - जमघट के बीचोबीच,
सूर्य की रौशनी जो सिर्फ तुमतक पहुँचती है।
और सूर्य की रौशनी के इस पार अंधेरे में मैं,
और घनी अंधेरों से झाँकती मेरी नम आँखें,
अलहदा सी चेहरे को...,
मैं पश्चिम का साँझ या अंधेरा नही हूँ,
मैं "आवारा" जो दिल की सुनता हूँ,
और तुमतक भटकता हूँ,
सोचा भटकते हुए इस घनी अंधेरों की जाल से निकल तुमतक पहुँचूँ।
मैं अंधेरों की घनी ज़ाल से अब भी लड़ रहा था,
रौशनी जो तुमतक पहुँच रही थी, वह अब अलहदा सी चेहरे की चूम रही थी।
जब अंधेरे से रौशनी में निकल आया,
तब रौशनी के बजाये तुम्हें कोई और चूम रहा था।
पाँव थम से गये, गुनगुननी धूप और बसंत हवा रुक सी गई।
भिगी पलकों में लिपटे आँशुओँ को मैं समेटकर - फ़िर अंधेरों में लौट आया!
एक तलाश में भटकता हूँ,
जो तुमतक आकर रुकती है,
क्योंकि, मैं तुमतक भटकता हूँ।