काम के एक लंबे थकान के बाद घर लौटा हूं। इससे पहले सबकुछ अच्छा चल रहा था। लेकिन पता नहीं खुदको अब बहुत गंभीर महसूस कर रहा हूं। इससे पहले मैं ऐसा बिल्कुल नहीं था। पागलों सा हंसता था, कुछ भी उल्टा सीधा बोलता था। किसी के सीधे बातों का उल्टा जवाब निकालने से तो बेहतर है कि उल्टा सीधा जैसा ही बोलना। सच बताऊं तो मैं एक निहायतन बेवकूफ और पागल था। यह लोग मुझे कहते भी थे। लोगों का कहना मुझे चोट तो पहुंचाता था लेकिन अब मुझे अच्छा लगता है क्योंकि उन पुरानी यादों में दुख तो भरपूर था लेकिन अब मैं समझता हूं कि दर्द किसी द्वारा दिए गए या पहुचाए गए पीड़ा के बीच सबसे ज्यादा सुख निहित होता है। आठ महीना नौकरी पर गहरे समंदर और सिलेटी आसमान से घिरे रहने के बाद घर आने की मानसिक थकान ने मुझे बहुत थका दिया था। पर अब मैं अपने घर में हूं और खुदको अपने माता पिता छोटे भाई और समूचे घरवालों और दो नन्हें फूल और कोमल पौधें से भतीजियो से घिरा हुआ हूं। फिरभी एक खालीपन से भी घिरा हुआ हूं जबकि मैं समझता हू की जब मेरे पास इतना कुछ है तो खाली महसूस करने की मुझे क्या जरूरत है? इतना कुछ होने के बावजूद मैं एकांत की तलाश करता हूं। मन तेज गति से दूर भागता रहता है। किताबों से मुझे बेतरतीब लगाव था, "है" वह भी छूटा छूटा लग रहा है। एक किताब लिखने की कहानी पिछले लगभग पांच सालों से अपने मन मस्तिष्क में लिए ढो रहा हूं। पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा है जैसे मन का दरवाजा बंद हो चुका है। और इसके पीछे का कारण शायद उदेश्यहीन काल्पनिक जीवन जीना है।
हम मानुष लोग सुख की तलाश में कितना तेज़ भागते है लेकिन जाने अंजाने में दुख से लदे मंज़िल नाम के शख्स के पीछे भागते रहते है। वक्त चालाकी और चुपके से ढलती रहती है और हमारे हिसाब से उम्र कब उम्रदराज हो जाती है हमे पता नहीं चलता।
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