Saturday, July 21, 2018

बहुत रोता है, दिल!!

बहुत रोता है, दिल!!

जब अपने इश्क़ की यादों,
की हुस्न पर, तारीख़ जब पड़ी,
तबादला हुआ, ज़माने बदले,
लेकिन इमारतें, उदास ईंटो का ही रहा,

बहुत रोता है, दिल!!

जब अपनी उदास इश्क़ की,
यादों की क़िताब खोलता हूँ,
पन्नें पलटता हूँ, शब्द रोते है,
जब दिल दर्द सी गरजती है,
दिल रोता है, आँखें बरसती हैं,

बहुत रोता है दिल!!

आँशु ग़म की पुतलियों से झांकते है,
ग़म की स्याहियों से बने शब्द,
चुप बैठे वर्षो से पन्नों पर,
अपने आशुओ से भीगाती,
रोती, चीख़ती, यादों को सहेज़ती

बहुत रोता है, दिल!!

जब अपनी उदास इश्क़ की,
यादों की क़िताब खोलता हूँ,
पन्नें पलटता हूँ, शब्द रोते है,


Friday, June 8, 2018

।।साम्राज्यवाद और पूँजीवाद में फंसा, देश का लोकतंत्र और बीच मे पिसती आम जनता।।

आज देश मे चारो तरफ अगर गौर किया जाए, तो आप देखेंगे कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत मे, आज के परिवेश में लोकतंत्र के मंदिर में बैठे परेशान राजनीतिज्ञ ओछी राजनीति करने से बाज़ नही आ रहे है, कभी  भड़काऊ बयानबाज़ी तो कभी उज़ूल फिज़ूल की जुमलेबाज़ी जिससे राजनीति से लोगो का विश्वास ही नही बल्कि आम जनता की नजर में उनकी एक निम्न स्तरीय और अव्वल दर्जे का स्वार्थी राजनीतिज्ञ की छवि भी बन रही है | ऐसे में इनके बीच पिसती और घसीटती आम जनता और एक तरफ मुनाफ़े के दौर को देखे तो पूँजीवाद को शाश्वत रूप बड़े उद्योगपतियो को फायदा पहुँच रहा है, राजनीतिवाद और पूँजीवाद इन दो पहलुओं के सांठ-गांठ को व्यक्ति विषेश को ना समझकर आम जनता को समझने कि ज़रूरत है।
ये आम जनता कोई नौकरशाहों और अफसरशाहों से तात्पर्य नही बल्कि ग़रीब, मज़दूर जो फैक्टरियों में, जो कम  मज़दूरी पर काम कर रहे है, किसान, जो आज आत्महत्या करने को मज़बूर हो रहे है, ग़रीब आदिवासि जो आज भी आधुनिक समाज़ से वंचित दूर जंगलो में रहने और नक्सल गतिविधियों में शामिल रहने को मजबूर हैं, ऐसे में विद्यार्थियों को भी समझने की ज़रूरत है और हिन्दू मुस्लिम के राजनीति करने वालो के झूठे नुमाइंदों से बचने की ज़रूरत है।
अगर हम गौर करे तो ज़ाने अनजाने में देश की राजनीती एक बहुत बड़े तबके, पूंजीवाद में फसी हुई है ऐसे में यहाँ लोकतंत्र में बैठी सरकार को पूँजीवाद की लाल रंग की मानसिकता को समझने की ज़रूरत है, वही आम जनता को भी राजनीतिग्यो के साम्राज्यवादी विचारधारा को भी समझने की ज़रूरत है। क्योंकि यहाँ पर आम जनता को साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के अदृश्य वाली नकारात्मक उदेश्य को समझना ही होगा।
मज़दूर जो हमारे ही समाज़ का एक अभिन्न अंग है, जिसे साम्राज्यवाद और पूंजीवाद वर्षों से भेदभाव करता आ रहा है। समाज का प्रमुख अंग होते हुए भी आज मज़दूरों को उनके प्राथमिक अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूँजीपति हड़प जाते हैं। दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मुहताज हैं। दुनियाभर के बाज़ारों को कपड़ा मुहैया करने वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन ढँकनेभर को भी कपड़ा नहीं पा रहा है। सुन्दर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं गन्दे बाड़ों में रहकर ही अपनी जीवन-लीला समाप्त कर जाते हैं। इसके विपरीत समाज के जोंक शोषक पूँजीपति ज़रा-ज़रा-सी बातों के लिए लाखों का वारा-न्यारा कर देते हैं।  ऐसे में घटिया असमानता और ज़बरदस्ती थोपा गया भेदभाव भारत को एक बहुत बड़ी खाई में धकेलने को मजबूर हो रहा है। पूंजीवाद और साम्राज्यवाद एक तरफ अपने हुकूमत के छत पर बैठ कर अययाशी कर रहा है और एक तरफ देश की मासूम जनता इनके बीच पीस रही है।
ऐसे में हमको और आपको, साम्राज्यवाद और पूंजीवाद की अभद्र विचारधारा को समझना समझना ही होगा, वरना वो दिन दूर नही जब अरब और नॉर्थ कोरिया जैसे देशो में हमारे देश की गिनती होने लगेगी।

Saturday, March 10, 2018

यादों की बारात हो तुम

यादों की बारात हो तुम,
दुल्हन सी सजी कोई बात हो तुम,
शामों सुबह की आज़ान हो तुम,
गर्मी की तपन की मीठी बरसात हो तुम,
ठंढे दिनों की शुनहरी धूप हो तुम,
पतझड़ मौसम की दिलकशी याद हो तुम,
नदियों झीलों यादों की लहरों पे मौजूद-
तन्हाइयो की एक किताब हो तुम,
कोरे कागज पर बना सादगी का निशब्द हो तुम,
सूरज से चुराकर, टिमटिमाती तारो की बारात ही तुम,
दुल्हन सी सजी कोई बात हो तुम,
यादों की बारात हो तुम।।
                   
                         

Friday, March 9, 2018

जिन्दगी उदास है, न जाने ये कैसी प्यास है


क्या तुम्हें याद है, उन दिनो की बात

क्या तुम्हे याद है,
उन दिनो की बात!!

कि कैसे मैं हर दिन,
किसी न किसी बहाने,
तुम्हारे सामने वाले बेंच,
पर बैठ जाता था,
और मैं अपनी आँखो से,
थोडी सरारत, वाली नजरो से
देखा करता था,
तेरी झुल्फे जो करीने से,
तुम्हारे कोमल गर्दन को छूते थे,
फिर उनके सहारे, अपनी ज़ूल्फो
के पिछे छीपकर थोडी,
गुस्ताख नजरो से मुझे देखना,

क्या तुमहे याद है,
उन दिनो की बात!!

कैसे तेरी - मेरी आंखे,
एक हो जाती थी,
कलम और नोट बूक,
के सहारे, बाते करना,
तुम अपने, दोस्तो की भीड मे,
और मैं अपनो की,
फिर ज़माने,
से छीपकर हाथ हिलाकार,
bye2 करना,

क्या तुम्हे याद है,
उन दिनो की बात!!

Thursday, March 8, 2018

मतलबी जिन्दगी


आखिर क्यो है? ये ज़िन्दगी,
कभी मौसम सी बदलती ज़िन्दगी,
कभी तनहा सी तो कभी उदास ज़िन्दगी,
कभी काटो सी बीछी,
कभी फूलो सी बीछी सफर ज़िन्दगी,
कभी रोती तो कभी मुस्कुराती  ज़िन्दगी,
कभी अकेलेपन को सिंचती ज़िन्दगी,
तो कभी अपने सपने को बूंती ज़िन्दगी,
कभी आंधियो से भी तेज भागती ज़िन्दगी,
कभी पतवार बनकर लहरो से लड़ती ज़िन्दगी,
कभी खुद से तो कभी अंजान सपनो से लड़ती ज़िन्दगी,
कभी थकना, थक के बैठ जाना,
फिर उठना और फिर से बधाओ को चिरते हुए,
सपनो को अपनी मुट्ठी मे कैद करना है ज़िन्दगी,
सच ये है कि कभी हसना कभी रोना,यही है ज़िन्दगी!!