तुम कहो तो मैं तुम्हे फिर लिखूँगा,
माफ़ करदो, ग़लती हो गई,
एक मौका तो दो,
तुम जैसे कहोगी, वैसे लिखूँगा।
बहुत क़रीने से लिखूँगा, इस बार,
यकीन करो, ठीक, तुम्हारी कमरे में रखें,
किताबों की तरह।
पिछली बार जब मैं तुम्हें लिखने आया था,
तब तुम्हें कोई और लिख रहा था।
पर जाने दो भी, क्या रखा है?
उन पुरानी बातों में।
लेकिन तुम बिल्कुल फ़िक्र ना करो,
मैं तुम्हें उस तरह नही लिखूँगा,
जिस तरह, उसने तुम्हें लिखा था।
और तुम ये भी फ़िक्र ना करो,
की मैं उसकी तरह, तुम्हें छूकर लिखूँगा,
लेकिन हां, कुछ फ़ासलों की दूरी,
पर बैठ तुम्हें पूरा लिखूंगा,
छूकर नही बल्कि स्पर्श कर।
उसने तुम्हें लिख़ने में सैकड़ों,
पन्ने गवाँ दिए,
आख़िरकार उसने तुम्हे गवाँ दिया।
चलो, शुरू करता हूँ, तुम्हें लिखना,
उस फुलवारी की काठ की बेंच पर तुम बैठना
और मैं कुछ फासलों की दूरी पर।
अरे ये क्या!
तुम्हारे मोती से आँशु क्यों लुढ़क रहे है?
मैं बोल रहा हूँ न कि तुम्हें लिख रहा हूँ।
माफ़ करना वो दिसंबर वाली रात को,
मैं फिर तुम्हें लिखना चाहता हूँ,
की तुमनें कहा था,
क्या तुम फ़ालतू में लिखते रहते हो।
चुप रहो,
तुम मुझे लिख रहे हो या ताना दे रहे हो।
उसने कहा और हँस दिया।
चलो दिखाओ,
क्या लिखा तुमने अभीतक,
फ़िर, उसने कहा।
लो, लिख दिया मैंने शब्दों का "माला",
हो सके तो यह "माला" मुझे पहना दो।
मैंने कहा!
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