Thursday, September 3, 2020

उम्र अभी गुज़री नही, तजुर्बों ने आशियाने बनाने लगे हैं।

 उम्र अभी गुज़री नही, 

तजुर्बों ने आशियाने बनाने लगे हैं।


वो संकरी पगडंडियों वाली कच्ची सड़क,

जो घर से होते हुए, पर्वत को जाती थी,

जो घर की रौशनदान जिसकी चोटी को झाँकते थे।


सुनसान जगहों पर मौजूद,

वो बरगद, इमली, बैर के पेडों का

वो डरावनी कहानियों का क़हर,

जो अक्सर रात को, मेरी आँखों मे आके अपना घर बनाया करती थी।

और वो माँ का "आँचल" जिसमे छिपाकर

माँ अक्सर कहा करती थीं, मत जाया करो वहाँ।


वो सारी डरावनी कहानियों का जगह,

अब मुझे आकर्षित करते है।

शायद उसकी भी गुज़रती उम्र की अंतिम दहलीज़ में, 

मेरी बचपना अभी भी मौजूद होगी।


तजुर्बों के जवां होते शहर में,

यादों की बुजुर्ग होने की जगह कम पड़ रही है।



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