Thursday, September 3, 2020

यादें संस्कारों की...

मेरे बड़े चाचा और छोटे चाचा ने घर बनाया है।

वही ईंट और कंक्रीट वाली" मज़बूत दीवारों वाली।

जिसमे यादों ने अपने दम घोंट लिए है।


लेकिन वो घर याद आता है।


मेरे पापा भी घर बनाने वाले है।

वही, ईंट और कंक्रीट वाली। मज़बूत दीवारों वाली।

जो एक दिन आधी अधूरी यादें भी कहीं दफ़्न हो जाएंगे।


लेकिन वो घर याद आता है।


लेकिन, मुझे बेहद भाने लगा है,

मेरे पापा की हिस्से वाली पुराना घर।

इसके दीवारों पर लगी "चुने" वाली रंग,

बारिश की बूंदों से भीगकर, 

अब टूटती फीके रंग वाली बची खुची यादों पपड़ियाँ,

घर की दीवारों में उगी, 

वो दादी की झुर्रियों जैसी, 

मनोर्मम बसंत सी मुस्कुराती यादों की दरारें।


लेकिन वो घर याद आता है।


और वो पहले वाली घर, 

जिसपर छोटे चाचा ने घर बनाया है।

वही, ईंट और कंक्रीट वाली, मज़बूत दीवारों वाली।

जिसमे दो दो अमरूद के पेड़ हुआ करते थे।

उसमें, कभी नयी हरि हरि पत्तियां,

तो कभी पतझड़ वाली पत्तियां,

फिर, उन पत्तियों को ख़ामख़ा बिनती मेरी बूढ़ी दादी।

और वो खपरैल वाले कमरे और इन सबको अपनी ओर आकर्षित करता वो यादों का गहरा कुआँ,

जिसमे पानी ना होकर, सालों यादों की नमी रहा करती थी।

जिसमें पुराने दिनों की यादों की खूबसूरत सिलवटें थी।


लेकिन वो घर याद आता है।


बहुत दिनों के बाद घर आया हूँ।

लेकिन अब वो झलकियां नही मिलती बूढ़ी अम्मा के,

पाँव, पापा की हिस्से वाली पुरानी दीवारों वाली चौखट से गुजरने को नागवार गुज़रती है।

अब टहलता रहता हूँ। 

अपने यादों की काई लगी छत पे।

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