एक अंधेरा था,
खुशियों के परे,
किसमत के गर्त के परतों से दबा नीचे,
जहाँ वो कैद था,
किसमत के सलाख़ों के पीछे,
जहाँ न सीढ़ी था, न चींटी,
और नाहीं, गोताखोर...
थीं तो बस, उस अँधेरे में,
मौज़ूद दीवारें और जिसपे कुछ दरारें थी!
लेक़िन उसने ख़ुद को न रोका न थामा,
वो इत्मिनान आत्मबल से चढ़ता गया।
अब किसमत उसके साथ थी,
और सलाखें उसके पीछे।
No comments:
Post a Comment