मुझे डर नही लगता, डर लगता है तो बस अपनी हिचकिचाहट से, मैं अपनी इसी हिचकिचाहट से लड़ता हूँ।
Saturday, October 21, 2017
Thursday, September 14, 2017
रहने को घर नही सारा जहाँ हमारा (महँगाई पर कविता; poem on inflation)
कमरा तो एक ही है,
कैसे चले गुज़रा,
बीबी गई थी मायके,
लौटी नही दुबारा,
कहते है लोग मुझको,
सदी सुदा कुँआरा
रहने को घर नही,
सारा जहाँ हमारा।।
महँगाई बढ़ रही है,
मानो मुझपर ही चढ़ रही है,
चीजों के भाव सुनकर,
तबियत बिगड़ रही है,
मैं कैसे खरीदू मेवे,
मैं खुद हुआ मछुआरा,
रहने को घर नही,
सारा जहाँ हमारा।।
सुभचिंतको तुम मुझको,
नकली सूरा पिला दो,
इस महँगाई, मुफ़लिसी से,
मुक्ति तुरंत दिला दो,
भूकंप जी पधारों,
अपनी कला दिखाओ,
ऊँचे ऊँचे मकान गिराओ,
जिनके किराये है ज़्यादा,
एक झटका मारने में,
क्या जायगा तुम्हारा,
रहने को घर नही,
सारा जहाँ हमारा।।
जिसने भी सत्य बोला,
उसे मिली ना रोटी,
कपड़े उतर गए सब,
लग गई लंगौटि,
वह मरा है ठंड से,
दीवारों के सहारे,
उन दीवारों पे लिखे थे,
दो वाक़्य प्यारे प्यारे,
सारे जहाँ से अच्छा,
हिंदुस्तान हमारा,
हम बुलबुले है इसके,
गुलसिताँ हमारा,
रहने को घर नही,
सारा जहाँ हमारा।।
कैसे चले गुज़रा,
बीबी गई थी मायके,
लौटी नही दुबारा,
कहते है लोग मुझको,
सदी सुदा कुँआरा
रहने को घर नही,
सारा जहाँ हमारा।।
महँगाई बढ़ रही है,
मानो मुझपर ही चढ़ रही है,
चीजों के भाव सुनकर,
तबियत बिगड़ रही है,
मैं कैसे खरीदू मेवे,
मैं खुद हुआ मछुआरा,
रहने को घर नही,
सारा जहाँ हमारा।।
सुभचिंतको तुम मुझको,
नकली सूरा पिला दो,
इस महँगाई, मुफ़लिसी से,
मुक्ति तुरंत दिला दो,
भूकंप जी पधारों,
अपनी कला दिखाओ,
ऊँचे ऊँचे मकान गिराओ,
जिनके किराये है ज़्यादा,
एक झटका मारने में,
क्या जायगा तुम्हारा,
रहने को घर नही,
सारा जहाँ हमारा।।
जिसने भी सत्य बोला,
उसे मिली ना रोटी,
कपड़े उतर गए सब,
लग गई लंगौटि,
वह मरा है ठंड से,
दीवारों के सहारे,
उन दीवारों पे लिखे थे,
दो वाक़्य प्यारे प्यारे,
सारे जहाँ से अच्छा,
हिंदुस्तान हमारा,
हम बुलबुले है इसके,
गुलसिताँ हमारा,
रहने को घर नही,
सारा जहाँ हमारा।।
Wednesday, September 13, 2017
एहसास
पता नही क्यों, अंजान जानते हुए भी हर बार तुम्हारी यादों से मिलने पहुंच जाता हूँ। शायद दिल के हाथों मज़बूर होके आज से ठीक कुछ दिनों पहले अपनी तन्हाइयों की तंग गलियों के बीच तुम्हें देखा था महशूस किया था। यक़ीन नही होता इतने वक़्त में तुम मेरे इतनी क़रीब आ गई हो।।.
जब तुम्हे मैं सोचता हूँ, तो मानो जैसे मेरी धड़कने थम सी जाती है और फिर शुरू होता है तुम्हारी यादों का कारवां जिसमे तुम होती हो और तुम्हारी यादों की अनसुलझी और धुंधली सी तुम्हारी तस्वीरें, जिसे मैं छूूना तो चाहता हूँ पर डर लगता है कि तुम मेरी यादों की धुंधली तस्वीरों से कही मिट न जाओ, तेरी यादों के बगैर मेरी सांसे अधूरी है,मैं युही तुम्हारी यादों को समेटना चाहता हूँ।
जब तुम्हे मैं सोचता हूँ, तो मानो जैसे मेरी धड़कने थम सी जाती है और फिर शुरू होता है तुम्हारी यादों का कारवां जिसमे तुम होती हो और तुम्हारी यादों की अनसुलझी और धुंधली सी तुम्हारी तस्वीरें, जिसे मैं छूूना तो चाहता हूँ पर डर लगता है कि तुम मेरी यादों की धुंधली तस्वीरों से कही मिट न जाओ, तेरी यादों के बगैर मेरी सांसे अधूरी है,मैं युही तुम्हारी यादों को समेटना चाहता हूँ।
सुविचार
बचपन मे माँ द्वारा और पिता द्वारा फिर स्कूलो में गुरु द्वारा दी गई शिक्षा दीक्षा, हमारी उस वक़्त मात खाकर विचारों की बंजर ज़मीन गिर पड़ती है, जब हम अपनी तुच्छ और अस्पृश्यता भरी नज़रों से किसी को देखते है।
आँखों का ठौर ठिकाना (कविता)
तुम्हारे लिए मेरे दिल की जो बात होठों तक आई नही,
बस आँशुओ से है झांकती,
सायद तुमसे कभी, मुझसे कभी
कुछ तुम्हारे लिए लफ्ज़ है।
तुम्हारी धुंधली तस्वीरों को पहनकर,
तुम्हारी यादों को बाहों में डालकर
तेरी यादों की गहरी रात में करवटें लू,
लेकिन दिल मे जो एक मीठी सी दर्द की कंदील है,
आँशुओ का समुंदर ही समुंदर है,
तुम्हारी याद जैसे मेरी आँशुओ में है तैरती,
तुम्हारी याद जो में मेरे पास बेआवाज़ है,
जिसका पता मुझे है,
जिसकी खबर तुम्हें नही है,
ज़माने से भी छुपता नही,
जाने ये कैसा प्यार है,
तेरी याद है, तेरी धुँधली सी तस्वीरें है,
जो आवाज़ है, चीख़ है,
है तो बस खामोशी है, तेरी याद है।
बस आँशुओ से है झांकती,
सायद तुमसे कभी, मुझसे कभी
कुछ तुम्हारे लिए लफ्ज़ है।
तुम्हारी धुंधली तस्वीरों को पहनकर,
तुम्हारी यादों को बाहों में डालकर
तेरी यादों की गहरी रात में करवटें लू,
लेकिन दिल मे जो एक मीठी सी दर्द की कंदील है,
आँशुओ का समुंदर ही समुंदर है,
तुम्हारी याद जैसे मेरी आँशुओ में है तैरती,
तुम्हारी याद जो में मेरे पास बेआवाज़ है,
जिसका पता मुझे है,
जिसकी खबर तुम्हें नही है,
ज़माने से भी छुपता नही,
जाने ये कैसा प्यार है,
तेरी याद है, तेरी धुँधली सी तस्वीरें है,
जो आवाज़ है, चीख़ है,
है तो बस खामोशी है, तेरी याद है।
तनहाइयाँ (कविता)
ज़िन्दगी उदास है,
न जाने ये कैसी प्यास है।
अधूरा मैं हूँ, पूरी तुम हो,
मैं अंजाना सा उदासियों का महफ़िल हूँ।
तुम ज़माने की महफ़िल हो,
मैं टूटा सा तुम्हारी यादों का बांध हूँ।
तुम इस टूटे से बाँध में नाव सी सफ़र हो।
मैं खामोश सा बेआवाज़ हूँ,
तुम ज़माने की आवाज़ हो।
मैं तुमसे मज़े में दर्द लेता हूँ,
तुम मुझसे दर्द में मज़े लेती हो।
मैं तेरी यादों की तन्हाइयो का दीवार हूँ,
तुम किसी और की बाहों की दीवार हो।
न जाने ये कैसी प्यास है।
अधूरा मैं हूँ, पूरी तुम हो,
मैं अंजाना सा उदासियों का महफ़िल हूँ।
तुम ज़माने की महफ़िल हो,
मैं टूटा सा तुम्हारी यादों का बांध हूँ।
तुम इस टूटे से बाँध में नाव सी सफ़र हो।
मैं खामोश सा बेआवाज़ हूँ,
तुम ज़माने की आवाज़ हो।
मैं तुमसे मज़े में दर्द लेता हूँ,
तुम मुझसे दर्द में मज़े लेती हो।
मैं तेरी यादों की तन्हाइयो का दीवार हूँ,
तुम किसी और की बाहों की दीवार हो।
यादों की बारात हो तुम (कविता)
यादों की बारात हो तुम,
दुल्हन सी सजी कोई बात हो तुम,
शामों सुबह की आज़ान हो तुम,
गर्मी की तपन की मीठी बरसात हो तुम,
ठंढे दिनों की शुनहरी धूप हो तुम,
पतझड़ मौसम की दिलकशी याद हो तुम,
नदियों झीलों यादों की लहरों पे मौजूद-
तन्हाइयो की एक किताब हो तुम,
कोरे कागज पर बना सादगी का निशब्द हो तुम,
सूरज से चुराकर, टिमटिमाती तारो की बारात ही तुम,
दुल्हन सी सजी कोई बात हो तुम,
यादों की बारात हो तुम।।
दुल्हन सी सजी कोई बात हो तुम,
शामों सुबह की आज़ान हो तुम,
गर्मी की तपन की मीठी बरसात हो तुम,
ठंढे दिनों की शुनहरी धूप हो तुम,
पतझड़ मौसम की दिलकशी याद हो तुम,
नदियों झीलों यादों की लहरों पे मौजूद-
तन्हाइयो की एक किताब हो तुम,
कोरे कागज पर बना सादगी का निशब्द हो तुम,
सूरज से चुराकर, टिमटिमाती तारो की बारात ही तुम,
दुल्हन सी सजी कोई बात हो तुम,
यादों की बारात हो तुम।।
झूठी भेदभाव
।।एक बार ज़रूर पढ़े।।
मेरे साथियों आज मैं आपसे अपने जीवन मे बीती कुछ अनसुलझी तस्वीरें साझा करना चाहता हूँ, जिससे मैं सुलझ सकू और आपको भी अपनी अनसुलझी, सुलझी तस्वीरों के बीच मौजूद सामाजिक अस्पृश्यता के रंगों से रू-ब-रू करवा सकू, जहाँ एक तरफ अस्पृश्यता शब्द को वैधानिक रूप से हमारे समाज से उखाड़ फेक दिया गया है, वही दूसरी तरफ अस्पृश्यता शब्द वैधानिक पन्नों में ही सुशोभित है, और ये शब्द आज भी हमारे समाज़ में गहरी स्थिर पानी मे बैठा मैला की तरह साफ झलकता है कि कैसे हमारा समाज़ आज भी भेद-भाव की पुरानी जंज़ीरों में जकड़ा हुआ है।
ये तस्वीरें जो मेरे ज़हन में पिछले कई सालों से समाज़ में बैठे उत्कंठा के लगे वृक्ष भेद-भाव से जकड़ी डालियाँ मेरे मन मे हिलोरे मार रही है। ये तस्वीरें 2012 की है जब मैं बिहार के रोहतास ज़िले के पुरातन प्राचीन किले रोहतास कीले के एक मामूली भ्रमण पर था, वहाँ पर विराजमान शिव जी का एक मंदिर है जिसे लोग चौरासन कहते है, जिसमे चौरासी सीढ़ियों को पार कर शिव जी का दर्शनाभिषेक किया जाता है, फिर वही से कुछ दूर आगे चलकर मुसलमानों का एक दरगाह है, जो काफी आस्था से ये दोनों लबरेज़ है और ये बख़ूबी हिन्दू मसलमानों का एकता का प्रतीक भी है।
दोस्तो मैं इतिहाष के ज़्यादा पन्नो को न पलटते हुए अपनी अनसुलझी स्मृति को आपके सामने प्रस्तुत करने जा रहा हूँ।
ये जो आप तस्वीर देख रहे है, मैं इसी चौरासन मंदिर के सीढ़ियों पर बैठकर सुबह की मीठी और उगती सूरज की किरणें और अद्भुत प्रकृति के बिखरते छटा को मनोर्मम हवाओं के साथ सकारात्मक विचारों में बह रहा था, तभी मेरी निगाहें एक मुस्लिम दंपत्ति पर पड़ी और उनके बच्चे जो सायद पांच छः की संख्या रही होगी, उनके बच्चे यत्र-तत्र चहलकदमी कर रहे थे, उनकी मासूमियत और नटखटपना ने और भी उस जगह को शुशोभित कर दिया था। सायद वो दम्पत्ति, कुछ आगे चलकर जो दरगाह उपस्थित था वही से आ रहे थे। जो बच्चे यत्र-तत्र चहलक़दमी कर रहे थे वो चौरासन यानी शिव जी के मंदिर के चौखट के कभी इसपार तो कभी उसपार हो रहे थे। तभी उन बच्चों की माँ ने अपने बच्चों को आवाज़ दिया, तुमलोग अंदर मत जाओ। और वहाँ पर विराजमान शिवलिंग को मत स्पर्श मत करना। मैं एक माँ की इस ममतामयी और निश्छल शब्द सुनकर मेरी आँखें नम हो गई, ये सारी तस्वीरों को अपने उम्र के हिसाब से तज़ुर्बे के दहलीज़ में ये सारी घटनाक्रम समाहित हो रही थी। मैंने तुरंत अपनी अंतरात्मा, अपने माँ बाप द्वारा दिये गये संस्कार से पूछा कि उस दंपत्ति को पता है कि वह जगह उनके छू देने से अपवित्र हो जायेगी, जबकि ऐसा हज़ारों मिलों तक अस्पृश्यता की भावना है ही नही, उस दम्पत्ति को हर चीज़ पता है फिर भी हमारे समाज़ में रह रहे लोगों के आँखों के ऊपर काली स्याही की भांति पट्टी लगी हुई है और आज जिसे हम आधुनिकता के दौर में अस्पृश्यता की भावना को नकारते है जबकि ये शब्द केवल वैधानिक रूप से कागज़ के पन्नों पर ही एक मात्र अदृश्य भावार्थ बनकर रह गया है।
मैं पूछना चाहता हूँ, समाज़ के उस तबके से जो अपने आपको शिक्षित कहता है।मैं पूछना चाहता हूँ, बवुद्धिजीवी वर्ग से। मैं पूछना चना चाहता हूँ, सामाज निर्माताओं से कि कब हमारे समाज़ में रह रहे कुछ लोगो द्वारा जो अस्पृश्यता की पुरानी जंग लगी भावना की जंज़ीरों से जकड़ा हुआ है और समाज मे कुरीतियां फैलाने से बाज़ नही आ रहे है।
जबकि हमारे देश को आज़ाद हुए और संविधान लागू हुए लगभग सत्तर साल की इस लम्बी अवधि के अंतराल में भी कुछ खासा बदलाव नही आया है।
छुआछूत, भेदभाव, अंधविश्वास की बेड़ियों में हमारा समाज़ जकड़ा हुआ है। ऐसे में मैं उनलोगो से आग्रह करना चाहता हूँ जो पढ़े लिखे साक्षर के साथ साथ अपने आपको शिक्षित कहते है, वो समाज़ के बीच पूर्णतः सक्रीय हो और सभी को शिक्षित करे।
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