Wednesday, November 4, 2020

एक तलाश में भटकता हूँ।

 एक तलाश में भटकता हूँ,

जो तुमतक आकर रुकती है।

क्योंकि, मैं तुमतक भटकता हूँ,


यादों की घाट पर - जमघट के बीचोबीच,

सूर्य की रौशनी जो सिर्फ तुमतक पहुँचती है।


और सूर्य की रौशनी के इस पार अंधेरे में मैं,

और घनी अंधेरों से झाँकती मेरी नम आँखें,

अलहदा सी चेहरे को...,

मैं पश्चिम का साँझ या अंधेरा नही हूँ,

मैं "आवारा" जो दिल की सुनता हूँ,

और तुमतक भटकता हूँ,


सोचा भटकते हुए इस घनी अंधेरों की जाल से निकल तुमतक पहुँचूँ।

मैं अंधेरों की घनी ज़ाल से अब भी लड़ रहा था,

रौशनी जो तुमतक पहुँच रही थी, वह अब अलहदा सी चेहरे की चूम रही थी।

जब अंधेरे से रौशनी में निकल आया,

तब रौशनी के बजाये तुम्हें कोई और चूम रहा था।

पाँव थम से गये, गुनगुननी धूप और बसंत हवा रुक सी गई।

भिगी पलकों में लिपटे आँशुओँ को मैं समेटकर - फ़िर अंधेरों में लौट आया!


एक तलाश में भटकता हूँ,

जो तुमतक आकर रुकती है,

क्योंकि, मैं तुमतक भटकता हूँ।



ठीक, जहाँ दस साल पहले हम बैठे थे।

 सालों बाद अपने शहर लौटा, बटुए, में कुछ छोटे बड़े कागज़ के टुकड़े थे,

जिसकी क़ीमत रुपयों में थी। कामकाज़ की व्यस्तता के बीच, क़िताबों के साथ अकेलेपन की लत थी।

अब चाय की जहग, कॉफ़ी की लत थी। कॉफ़ी की तलब लगी, सोचा रेस्त्रां को हो लूं, बचपन की ख़ुशनुमा यादों की-

गंदी संकरी गलियों को पार कर, बाज़ार के उस चौराहें पर पहुँचा, जहाँ से धुँए बादल बनकर उठ रहे थें,

चाट के स्टॉल को देख होंठ मुस्कुराने के बजाएं,

आँखों मे ही सिमट के रह गई।

इसके बगल वाली रेस्तरां ने अपने अंदर खींच लिया।

आँखें रेस्तरां की चकाचौंध देख - ख़यालो को थोड़ी तसल्ली हुई। 

कॉफ़ी की चुस्की लेते हुए, पन्ने को पलट - पढ़ रहा था।

बग़ल तिरछें वाली टेबल से - कुछ आवाज़े मेरे कानों में शोर कर रही थी।

जो जानी - पहचानी थी।

उस ओर देख, वो आँखों मे सिमटी खुशी,

आँशुओँ में तब्दील हो उतर आये।

उस टेबल पर ठीक दस साल पहले -

जहाँ हम दोनों बैठे थे।

फ़र्क बस इतना था कि-

वो एक बच्चे और नौजवान के साथ बैठी थी,

और मैं कॉफ़ी और किताब के साथ,

मन फ़ीका - कॉफी फ़ीकी,

आँखें चुराकर, उसकी नज़रों से बचते हुए,

ख़ुदको समेटकर - संभालकर,

रेस्त्रां से बाहर निकल आया।

क्योंकि वहाँ तुम बैठी थी,

जहाँ ठीक दस साल पहले हम बैठे थे।


Thursday, October 15, 2020

तुम्हें किताबो में पढूंगा।

तुम्हे किताबों में पढूंगा।


जब किताबों को पढ़ता हूँ,

तो किताबें मुझे पढ़ने लगती हैं,

ठीक उसी तरह जैसे हर दिन पहली बार पढ़ रहा हूँ,

जैसे, अपनी प्रेमिका की दी हुई,

वो प्रेम पत्र की तरह,

कुछ पन्ने लिख कर आगे बढ़ता हूँ,

शब्द, बिल्कुल तुम्हारी तरह मुस्कुरा देते है,

फिर, मैं वापस लौट आता हूँ,

और शब्दों की रंग से रंगने लगता हूँ,

और क़िस्से कहानियों में तुम्हें पिरोने लगता हूँ,

"फ़िर"

उलझी जीवन की परतें,

खुलने और सुलझने लगती है,

ठीक प्याज़ की परतों की तरह।

चाय, चुप्पी और बारिश।

 चाय, बारिश, चुप्पी


क्या करूँ, क्या ना करू

दिल हैरान परेशां रहता है।

चाय बारिश चुप्पी

हाथों में किताब

और होंठो का वो तुम्हारा तिल

सब इस बारिश के हल्की-

फुहारों से भीग रहे है

पहली बारिश की तरह, "आज"

दूसरी बारिश में धीरे धीरे धूल रही है,

चाय, चुप्पी, किताबों में लिखे शब्द,

सिवाय, तुम्हारे होंठ के तील के

तिल, जो आँखों मे घनी अंधेरों की आबादी है,

बस्ती, गली, मोहल्ले के बावुजूद पर्वत सा खालीपन है।

मैं तुमसे ऐसे प्यार करता हूँ।

मैं तुमसे ऐसे प्यार नही करता,

जैसे तुम गुलाब हो।

पुखराज या गुलनार के जैसा नही,

मैं तुमसे प्यार करता हूँ।


जैसे कोई अंधेरी चीज़ हो,

राज की तरह, आत्मा और परछाई के बीच।"

मैं तुम्हे ऐसे प्यार करता हूँ।

जैसे कोई पौधा जो कभी नही खिलता,

पर अपने अंदर ही, छिपाकर,

अपने अंदर फूलों की रौशनी लिए।"

शुक्र है तुम्हारे प्यार का,

जो मेरे शरीर मे रहती है..."

एक ऐसी शौन्धी खुशबू,

जो ज़मीन से निकलती है।

मैं तुम्हें कैसे, कब या कहा से,

बिना जाने प्यार करता हूँ।

मैं तुम्हे सीधा प्यार करता हूँ,

जटिलताओं या गर्व के बिना,

जिसमे ना तुम हो, ना मैं,

इतने पास की मेरे

दिल के चौखट पर सिर्फ तुम्हारी आहट हो।"

इतने पास कि मेरे सपने देखने से

तुम्हारी आँखें बंद होती हो।

तन्हाई की चादर, रात ओढ़े

 तन्हाई की चादर, रात ओढ़े,

शायद खुद की तलाश में,

तुम्हें धीरे धीरे खो रहा हूँ।


तुम मुझे अक्सर मिलती हो,

और मैं जानबूझ कर,

तुम्हें खो देता हूँ। 


हर बार-हर रात में

मैं जानता हूँ, 

तुम एक मेरे लिए बनी हो,

तुम्हें बेहतर जीवन देने के लिए,

मैं खुद को बेहतर, तलाश रहा हूँ।


क्या तुम जानती हो,

हर बार - हर रात, 

ज़ार ज़ार आँखें रोकर

नाखूनों से बिस्तर को खुरचकर,

की मैं तुम्हें, महसूस करता हूँ,

मैं तुम्हें चखता हूँ,

मैं तुम्हें सोचता हूँ,

मैं तुम्हे छूता हूँ, 

क्योंकि,

सच तो ये है, कि

ज़रा ज़रा खुद को खो रहा हूँ।


तालाब और मछलियों के रिश्तों को इंसानों को समझने में थोड़ा वक्त लगेगा।

 भीड़ में या अगल बगल लोगों में बैठना, शायद मुझे अच्छा नही लगता क्योंकि अधिकतम लोग विकारों से ग्रस्त है। और हाँ, मैं भी। मुझे ऐसा महसूस होता है जैसे मेलो के बीचोबीच बैठा हूँ और दिलो दिमाग पर भीड़ महसूस करता हूँ, एक भारीपन, फिर कभी तालाब के पास बैठ जाता हूँ, तो चिड़ियों की कलरव और तालाब में गुलूप गुलूप मछलियों की आवाज़ें। शायद, हम इंसानों को, तालाब और मछली के रिश्तों जैसा होने में अभी वक़्त लगेगा।

तुम दो या तीन होती, फिर भी मैं तुम्हें ही चुनता।

 यह मेरे लिए कहना मुश्किल है, कि 

तुम मेरे लिए कितनी अहम हो, 

शायद निशब्दता शब्द भी मेरे लिए कम पड़ जाए। 

क्योंकि तुमने मुझे जिस तरह जीना सिखाया है, 

वह एक ख़ुशनुमा तरीका ना होकर, 

मेरे लिए दुनिया मे सबसे,

अद्भुत और अलग एहसास है। 

मैं अपने आत्मा की गहराई से कह सकता हूँ, कि 

यदि तुम दो या तीन होती फ़िर भी मैं तुम्हें ही चुनता। 

मैं तो चाहता हूँ कि आज का दिन हम दोनों के फासलों के बीच गवाह बनी ये रात, 

यही और हमेशा के लिए ठहर जाएं,

लेकिन आज का दिन रुकेगा नही।

लेकिन हम दोनों आज भी है,कल भी 

और परसो भी क्योकि, 

आज - कल परसो आज ही बना रहेगा। 

क्योंकि तुम सिर्फ आज नही हो बल्कि,

हर सुबह दोपहर और शाम तीनो पहर, तुम ही तुम हो।


Thursday, September 3, 2020

यादें संस्कारों की...

मेरे बड़े चाचा और छोटे चाचा ने घर बनाया है।

वही ईंट और कंक्रीट वाली" मज़बूत दीवारों वाली।

जिसमे यादों ने अपने दम घोंट लिए है।


लेकिन वो घर याद आता है।


मेरे पापा भी घर बनाने वाले है।

वही, ईंट और कंक्रीट वाली। मज़बूत दीवारों वाली।

जो एक दिन आधी अधूरी यादें भी कहीं दफ़्न हो जाएंगे।


लेकिन वो घर याद आता है।


लेकिन, मुझे बेहद भाने लगा है,

मेरे पापा की हिस्से वाली पुराना घर।

इसके दीवारों पर लगी "चुने" वाली रंग,

बारिश की बूंदों से भीगकर, 

अब टूटती फीके रंग वाली बची खुची यादों पपड़ियाँ,

घर की दीवारों में उगी, 

वो दादी की झुर्रियों जैसी, 

मनोर्मम बसंत सी मुस्कुराती यादों की दरारें।


लेकिन वो घर याद आता है।


और वो पहले वाली घर, 

जिसपर छोटे चाचा ने घर बनाया है।

वही, ईंट और कंक्रीट वाली, मज़बूत दीवारों वाली।

जिसमे दो दो अमरूद के पेड़ हुआ करते थे।

उसमें, कभी नयी हरि हरि पत्तियां,

तो कभी पतझड़ वाली पत्तियां,

फिर, उन पत्तियों को ख़ामख़ा बिनती मेरी बूढ़ी दादी।

और वो खपरैल वाले कमरे और इन सबको अपनी ओर आकर्षित करता वो यादों का गहरा कुआँ,

जिसमे पानी ना होकर, सालों यादों की नमी रहा करती थी।

जिसमें पुराने दिनों की यादों की खूबसूरत सिलवटें थी।


लेकिन वो घर याद आता है।


बहुत दिनों के बाद घर आया हूँ।

लेकिन अब वो झलकियां नही मिलती बूढ़ी अम्मा के,

पाँव, पापा की हिस्से वाली पुरानी दीवारों वाली चौखट से गुजरने को नागवार गुज़रती है।

अब टहलता रहता हूँ। 

अपने यादों की काई लगी छत पे।

उम्र अभी गुज़री नही, तजुर्बों ने आशियाने बनाने लगे हैं।

 उम्र अभी गुज़री नही, 

तजुर्बों ने आशियाने बनाने लगे हैं।


वो संकरी पगडंडियों वाली कच्ची सड़क,

जो घर से होते हुए, पर्वत को जाती थी,

जो घर की रौशनदान जिसकी चोटी को झाँकते थे।


सुनसान जगहों पर मौजूद,

वो बरगद, इमली, बैर के पेडों का

वो डरावनी कहानियों का क़हर,

जो अक्सर रात को, मेरी आँखों मे आके अपना घर बनाया करती थी।

और वो माँ का "आँचल" जिसमे छिपाकर

माँ अक्सर कहा करती थीं, मत जाया करो वहाँ।


वो सारी डरावनी कहानियों का जगह,

अब मुझे आकर्षित करते है।

शायद उसकी भी गुज़रती उम्र की अंतिम दहलीज़ में, 

मेरी बचपना अभी भी मौजूद होगी।


तजुर्बों के जवां होते शहर में,

यादों की बुजुर्ग होने की जगह कम पड़ रही है।



Monday, August 31, 2020

तुम्हें... फिर लिखूँगा

 तुम कहो तो मैं तुम्हे फिर लिखूँगा,

माफ़ करदो, ग़लती हो गई,

एक मौका तो दो, 

तुम जैसे कहोगी, वैसे लिखूँगा।

बहुत क़रीने से लिखूँगा, इस बार, 

यकीन करो, ठीक, तुम्हारी कमरे में रखें, 

किताबों की तरह।

पिछली बार जब मैं तुम्हें लिखने आया था,

तब तुम्हें कोई और लिख रहा था।

पर जाने दो भी, क्या रखा है?

उन पुरानी बातों में।

लेकिन तुम बिल्कुल फ़िक्र ना करो,

मैं तुम्हें उस तरह नही लिखूँगा,

जिस तरह, उसने तुम्हें लिखा था।

और तुम ये भी फ़िक्र ना करो,

की मैं उसकी तरह, तुम्हें छूकर लिखूँगा,

लेकिन हां, कुछ फ़ासलों की दूरी,

पर बैठ तुम्हें पूरा लिखूंगा, 

छूकर नही बल्कि स्पर्श कर।

उसने तुम्हें लिख़ने में सैकड़ों,

पन्ने गवाँ दिए, 

आख़िरकार उसने तुम्हे गवाँ दिया।

चलो, शुरू करता हूँ, तुम्हें लिखना,

उस फुलवारी की काठ की बेंच पर तुम बैठना

और मैं कुछ फासलों की दूरी पर।

अरे ये क्या! 

तुम्हारे मोती से आँशु क्यों लुढ़क रहे है?

मैं बोल रहा हूँ न कि तुम्हें लिख रहा हूँ।

माफ़ करना वो दिसंबर वाली रात को,

मैं फिर तुम्हें लिखना चाहता हूँ,

की तुमनें कहा था, 

क्या तुम फ़ालतू में लिखते रहते हो।

चुप रहो, 

तुम मुझे लिख रहे हो या ताना दे रहे हो।

उसने कहा और हँस दिया।

चलो दिखाओ, 

क्या लिखा तुमने अभीतक,

फ़िर, उसने कहा।

लो, लिख दिया मैंने शब्दों का "माला",

हो सके तो यह "माला" मुझे पहना दो।

मैंने कहा!